BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

अध्याय - 4

जैन नीतिशास्त्र

(Jaina Ethics)


 

प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।

अथवा
जैन नीतिशास्त्र में त्रिरत्न की अवधारणा पर प्रकाश डालिए।
अथवा
जैन नीतिशास्त्र में त्रिरत्न से आप क्या समझते हैं? विवेचना कीजिए।
अथवा
जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की व्याख्या कीजिए।
अथवा
जैन नीतिशास्त्र की व्याख्या एवं परीक्षण कीजिए।

उत्तर -

हिन्दू धर्मशास्त्र के प्रतिरोधी के रूप में जैन धर्म तथा नीतिशास्त्र का विकास हुआ। जैन धर्म का विकास ई.पू. छठी सदी में हुआ जब इसके चौबीसवें तीर्थंकर महावीर ने अपने नए विचारों, सिद्धान्तों और कार्यों से इसे नया जीवनदान दिया। परिणामस्वरूप तत्कालीन समाज में जैन धर्म का समुचित प्रसार हुआ।

त्रिरत्न - जैन धर्म के नीतिशास्त्र में त्रिरत्न की व्याख्या की गयी है। त्रिरत्न जीव को कर्मफल से मुक्ति दिलाने के लिए आवश्यक माना गया। कर्मों से छुटकारा दिलाकर मोक्ष की ओर प्रवृत्त करने वाला तत्व ही त्रिरत्न है। उमास्वामी ने भी कहा है "सम्यक दर्शन ज्ञान चरित्राणि मोक्ष मार्गः। सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र नामक विविध साधन को ही त्रिरत्न कहा गया है। सत् का ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है। सच्चरित्रता और सदाचरण का पालन करते हुए जब जीव कलेश और अशोभन कर्मों से रहित हो जाता है तब वह सम्यक् चरित्र कहलाता है। अतः त्रिरत्न के पालन द्वारा ही कर्मफल से मुक्ति सम्भव मानी गई है।

सम्पूर्ण विश्व को असंख्य जीवों का निवास माना गया है तथा सभी पदार्थों को सचेतन और आत्मयुक्त स्वीकार किया गया है। प्रत्येक जीवन में आत्मा और भौतिक तत्व दो अंश होते हैं। जब आत्मा को भौतिक तत्व से मुक्ति मिल जाती है तब निर्वाण होता है और इसे ही प्राप्त करना जीव का उद्देश्य होता है। आत्मा में विस्तार और सार्वभौमिकता पाई जाती है। वह अनन्त, असीम और सत् है। भौतिक पदार्थ असत् एवं बन्धन है जिसके कारण जीव को आत्मा के स्वभाव का दर्शन नहीं हो पाता है। वह भौतिक पदार्थों से आच्छादित रहता है। भौतिक तत्व असत् होता है। सत् पर असत् का प्रभाव होता है। जब सत् के प्रति सच्ची निष्ठा और ज्ञान जाग्रत होता है तब असत् का प्रभाव कम हो जाता है जिससे इन्द्रियों के प्रभाव से रहित होकर, अनासक्त और उदासीन भाव से रहना ही सम्यक् स्थिति है। इस स्थिति से जीव को कष्ट, सुख और प्रसन्नता का अनुभव नहीं होता है।

(क) सम्यक् दर्शन (श्रद्धा) उचित विश्वास को सम्यक दर्शन या श्रद्धा कहते हैं। इसके निम्नलिखित आठ तत्व हैं -

1. निष्शंकित - सन्देह से दूर रहना। 

2. निष्कांशित - सांसारिक सुख की अभिलाषा को समाप्त करना।

3. निर्विचिकित्सक - काया के मोह-विराग से दूर रहना। 

 

4. अमूढ़ दृष्टि  - गलत मार्ग की ओर अग्रसर न होना।

5. उपगूहन - अपूर्ण और अधूरे विश्वासों से विचलित न होना।

6. स्थितीकरण - सही और उचित विश्वास पर अडिग रहना।

7. वात्सल्य - सभी के लिए समान रूप से प्रेम-भाव रखना।

8. प्रभावना - जैन विचार की सर्वश्रेष्ठता प्रदर्शित करना।

सम्यक् दर्शन के लिए निम्नलिखित तीन प्रकार की अपूर्णताओं तथा अज्ञानताओं से दूर रहने को कहा गया है -

(i) लोकमूढ़ - अन्धविश्वास को लोकमूढ़ कहा जाता है।

(ii) देवमूढ़ देवताओं की अन्धभक्ति को अस्वीकार किया गया है।

(iii) पाषंडमूढ़ - साधु-सन्तों के धोखे में न आना ही पाषंडमूढ़ है। साथ ही सम्यक् दर्शन के लिए पूजा, कुल, जाति, बल, तप, शरीर के अहंकार आदि से हमें दूर रहना चाहिए। 

(ख) सम्यक् ज्ञान - जैन आचारशास्त्र में जीव और अजीव के मूल तत्वों के पूर्ण ज्ञान को ही सम्यक ज्ञान कहा गया है। ऐसा ज्ञान संशयहीन और दोषरहित होता है। सम्यक ज्ञान निम्नलिखित पाँच प्रकार के होते हैं-

1. मति - इन्द्रियों द्वारा अनुभूत ज्ञान को मति कहा जाता है।

2. अवधि - कहीं अन्य रखी हुई किसी भी वस्तु का दिव्य ज्ञान होना। 

3. श्रुति - सुनकर प्राप्त ज्ञान को श्रुति कहते हैं। 

4. मनः पर्याय - मनःपर्याय कहलाता है। अन्य के हृदय और मस्तिष्क की बातों का बोध होने का ज्ञान ही

5. केवल - पूर्ण ज्ञान को केवल ज्ञान कहते हैं। यह परिव्राजकों और निग्रेन्थों को प्राप्त होता है।

आत्मा का भौतिक तत्वों से मुक्त होकर सत् का दर्शन करना ही सही ज्ञान है। सम्यक् ज्ञान के भी निम्नलिखित आठ अंग हैं -

(i) ग्रन्थ - शब्दों का सही प्रयोग होना चाहिए। 

(ii) अर्थ - शब्दों के अर्थ का सही और वास्तविक ज्ञान होना चाहिए।

(iii) उभय - शब्द और अर्थ का सही ज्ञान होना चाहिए।

(iv) काल - समय के चक्र और क्रम का परिज्ञान होना ही काल है।

(v) विनय - नम्रता का होना ही विनय है।

(vi) सोपधान - व्यवहार की उचित स्थिति ही सोपधान है। 

(vii) बहुमान - रुचि और उत्साह का होना ही बहुमान है।

(viii) अनिन्हव - ज्ञान को नहीं छिपाना ही अनिन्हव कहलाता है। 

(ग) सम्यक् चरित्र - हितकर कार्यों के आचरण तथा अहितकर कार्यों के परित्याग को सम्यक् चरित्र कहते हैं। सम्यक् चरित्र का पालन मन, वचन और कर्म से होना चाहिए, साथ ही मन, वचन और कर्म पर पूर्ण नियन्त्रण भी होना चाहिए। सम्यक् चरित्र के पालन से जीव अपने कर्मों से मुक्त हो जाता है। कर्म से ही वह बन्धन में पड़ता है। अतः कर्म से मुक्ति होने पर बन्धन से भी मुक्ति मिल जाती है। जैन आचारशास्त्र में मोक्ष के लिए सम्यक् चरित्र को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। सम्यक् चरित्र के लिए निम्नलिखित दस प्रकार के धर्मों का पालन करना आवश्यक है-

1. उत्तम क्षमा,
2. उत्तम मार्दव (कोमलता)
3. उत्तम आर्जव ( सरलता ),
4. उत्तम सोच ( पवित्रता )
5. उत्तम सत्य,
6. उत्तम संयम
7. उत्तम तप
8 उत्तम त्याग,
9. उत्तम अकिंचन तथा
10. उत्तम ब्रह्मचर्य।

जैन आचारशास्त्र में अधिक आराम और सुखी जीवन बिताने को अनुचित बताया गया है।

अतः यह निम्नलिखित बाईस परिवह (परीषह या कड़ाई) को सहन करने का निर्देश देता है

1. क्षुत् (भूख)
2. पिपासा ( प्यास),
3. शीत (सर्दी),
4. उष्ण (गर्मी),
5. वंशमशक ( मच्छरों का काटना),
6. नाग्य ( नंगापन),
7. अरति (दूषित वातावरण),
8. स्त्री ( यौन संताप ).
9. चर्या ( थकावट)
10. निषधा ( एक स्थल पर बैठे रहना)
11. शैया (कठोर भूमि पर शयन करना)
12. आक्रोश ( क्रुद्ध वचन सहना )
13 वध (पिटना)
14 याचना ( मांगना )
15. अलाभ ( कुछ भी न मिलना )
16. रोग (बीमारी),
17. तृणस्पर्श (काण्टे चुभना ),
18. मल (गन्दगी).
19. सत्कार पुरस्कार (अपमान),
20. प्रज्ञा (गुणों का अनादर )
21. अज्ञान (मूर्खता),
22. अदर्शन ( सिद्धान्त के प्रति अविश्वास )।

पाँच प्रकार की समितियों का पालन भी आवश्यक है। ये समितियाँ निम्नवत् हैं-

1. इया समिति - हिंसा से बचने के लिए निश्चित मार्ग से जाना। 

2. भाषा समिति - नम्र और मधुर वचन का प्रयोग करना।

3. एषणा समिति - उचित भिक्षा लेना।  

4. आदान- निक्षपण - समिति वस्तुओं को उठाने तथा रखने में सावधानी बरतना।

5. उत्सर्ग समिति - शून्य स्थानों में मल-मूत्र विसर्जन करना। 

इसी प्रकार कायगुप्ति, वाक्गुप्ति और मनोगुप्ति का भी पालन आवश्यक है। गुप्ति का अर्थ है- स्वाभाविक प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण होना।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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